Follow palashbiswaskl on Twitter

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity Number2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti Basu is dead

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti Devi were living

Tuesday, February 11, 2020

एक अंग्रेजी अखबार में गिरिराज किशोर की गलत तस्वीर पर हिंदी के लेखक पत्रकार तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि अंग्रेजी वाले हिंदी की परवाह नहीं करते और वे किसी गिरिराज किशोर को नहीं जानते।
भारत में अंग्रेजी ज्ञान विज्ञान की नही सत्ता की भाषा है और इसलिए आम जनता भी आजकल हिंदी को तिलांजलि देकर अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के घटिया स्कूलों में भेजने लगी है। जहां टीचर इस लायक भी नहीं होते की कोई विषय जानते समझते हों। ज्ञान विज्ञान के लिए नहीं , अछि नौकरी पाने के लिए लोग हिंदी छोड़ रहे हैं।
असमिया, ओड़िया, बंगला, पंजाबी, मराठी, तमिल, कन्नड़, मलयालम, तेलुगु में किसी भी बड़े साहित्यकार को लोग न सिर्फ जानते हैं,उन्हें पढ़ते भी हैं।
हिंदी वालो को अपनी भाषा, अपने साहित्य, अपनी संस्कृति अपने नायकों की कितनी परवाह है?
हिंदी पढ़े लिखे लोग अखबारों के अलावा कौन सा साहित्य पढ़ते हैं। कवियों के नाम कबीरदास सूरदास से आगे वे कितना जानते हैं?
गिरिराज किशोर या हिंदी के किसी भी आधुनिक साहित्यकार को कितने लोग जानते है?
उनका साहित्य कौन पड़ता है?
हिंदी के नाम खाने कमांड वालों में से कितने लोगों गिरमिटिया पढा है?
भारत तो क्या दुनियाभर की किसी भाषा के साहित्य और साहित्यकार से उस भाषा को जानने पढ़नेवाले लोग इतने अनजान नहीं होते।
आजादी से पहले हिंदी की इतनी दुर्गति नहीं होती थी। तब स्वतन्त्रता मनग्राम की भाषा थी हिंदी देशभर में, अहिन्दी भाषी प्रदेशों में भी। तब हिंदी न राजनीति, न सत्ता और न बाजार की भाषा थी। तब यह सही मायने में जनभाषा थी।हिंदी के नाम खाने कमानेवालों की जमात तब तैयार नहीं हुई थी।
हिंदी के आलोचकों, सम्पादकों और प्रकाशकों ने सरकारी खरौद के भरोसे किताबें किसी भी भाषा के मुकाबले ज्यादा महंगी करके हिंदी को आमलोगों के लिए लिखने पढ़ने की भाषा रहने नही दिया।
एकाधिकार कुलीन वर्चस्व के कारण आम लोगों के हिंदी में पढ़ने लिखने का कोई मौका नहीं है।
हिंदी अखबारों से साहित्य का नाता दशकों पहले खत्म हो गया है। उनमें साहित्य या साहित्यकारों की कोई चर्चा नहीं होती। बंगला, मराठी, ओड़िया, पंजाबी, असमिया, तमिल, तेलगु,कन्नड़, मलयालम में अखबारों में साहित्य और साहित्यकफोन के बारे में आम जनता को सिलसिलेवार जानकारी देते हैं।
अब टीवी के चीखते चिल्लाते एंकर ही हिंदी जनता के नायक हैं और घृणा, हिंसा, अपराध, भ्र्ष्टाचार के माफिया ही हिन्दीवालों के महानायक हैं
हम  हिंदी के साहित्य और साहित्यकार की चर्चा नहीं करते, उन्हें नहीं पहचानते तो कैसे उम्मीद पालते हैं कि अंग्रेजी में उन्हें पहचान जाए।

Sunday, May 20, 2018

স্মৃতিটুকু থাক্,ফিরে যাচ্ছি উদ্বাস্তু উপনিবেশে স্বজনদের কাছে হিমালয়ের কোলে! পলাশ বিশ্বাস

স্মৃতিটুকু থাক্,ফিরে যাচ্ছি উদ্বাস্তু উপনিবেশে স্বজনদের কাছে হিমালয়ের কোলে!

পলাশ বিশ্বাস

ভারত ভাগের ফলে পূর্ব বাংলা থেকে আসা কোটি কোটি উদ্বাস্তুদের বাংলায় জায়গা হয়নি  তবু যারা এখানে কোনো ক্রমে মাথা গুঁজে আছেন রেল লাইনের ধারে,খালে,বিলে,জলে ,জঙ্গলে তাঁরাও ব্রাত্য।সেই কোটি কোটি বাঙালি উদ্বাস্তুদের নাড়ি এখনো মাটির টানে,মাতৃভাষার শিকড়ে,সংস্কৃতির বন্ধনে বাংলার সঙ্গেই বাঁধা  তবু তাঁরা বাংলার ইতিহাস ভূগোলের বাইরে

দন্ডকারণ্য থেকে তাঁরা একবার ফিরে মরিচঝাঁপিতে বসত গড়ে ফেলেছিল,সেই বসত শাসক শ্রেণী উপড়ে ফেলেছিল ।সেই গণহত্যার বিচার 30 বছর পরও শুরু হল না ।

আমিও সেই উদ্বাস্তুদের ছেলে ।

উত্তর প্রদেশের বেরেলি শহরের চাকরি ছেড়ে কলকাতায় ইন্ডিয়ান এক্সপ্রেসের চাকরি নিয়ে এসেছিলাম শিকড়ের টানেই ।আজ টানা 27 বছর বাংলায় থাকার পর আমিও 47,64 কিংবা 71 এর উদ্বাস্তুদের মতই বাংলা ছেড়ে ফিরে যাচ্ছি ।

যথাসাধ্য বাংলায় টিকে থাকার চেস্টা অবশ্য করেছি কিন্তু বাংলার বাঙালিরা উদ্বাস্তুদের কোনো দিন স্বীকৃতি দেয়নি,এই শাশ্বত সত্যের মুখোমুখি হয়ে আবার উদ্বাস্তুদের উপনিবেশ উত্তরাখন্ডের দীনেশপুরে নিজের গ্রামে ফিরে যাচ্ছি ।

সারা বাংলায় মানুষের একটি বড় অংশের সঙ্গে যোগাযোগ হলেও বেনাগরিক উদ্বাস্তুদের জীবন যন্ত্রণা থেকে মুক্তির কোনো রাস্তা দেখতে পেলাম না । এখন আর লড়াই করার ক্ষমতা নেই,তাই স্বজনদের মধ্যেই ফিরে যাচ্ছি ।

কোটি কোটি বাঙালিদের বাংলা ছেড়ে যাওয়ায় বাংলা মায়ের চোখের জল পড়েনি কোনো দিন,আমার একার জন্যে সেই অশ্রুপাতের কোনো সম্ভাবনা নেই । কিন্তু সাতাশ বছরের স্মৃতি ত থেকেই যাচ্ছে ।

নীতীশ বিস্বাস,কপিল কৃষ্ণ ঠাকুর,শরদিন্দু বিশ্বাস,প্রদীপ রায়, ডঃগুণধর বর্মণ, মহাশ্বেতা দেবী, কমরেড সুভাষ চক্রবর্তী, কমরেড কান্তি গাঙ্গুলি, নাবারুণ ভট্টাচার্য, কমরেড অশোক মিত্র, ডঃগুণ, প্রবীর গঙ্গোপাধ্যায়,কর্নেল লাহিড়ী, রুদ্রপ্রসাদ সেনগুপ্ত,গৌতম হালদার ও আরও অনেক গুণী মানুষের সান্নিধ্য পেয়েছি,যাদের মধ্যে অনেকেই এখন বেঁচে নেই ।আমার সৌভাগ্য ।

2001 সালে উত্তরাখন্ডের বাঙালিদের বিদেশী ঘোষিত করে তাড়ানোর চেষ্টা শুরু করে সেই রাজ্যের প্রথম বিজেপি সরকার ।প্রতিবাদে গর্জে উঠেছিল বাংলা ।সেদিন কোলকাতার তাবত লেখক,শিল্পী,কবি,সাংবাদিক আমাদের পাশে দাঁড়িয়েছিলেন ।আজ ফেরার বেলায় তাঁদের কৃতজ্ঞতা জানাই ।

তারপর ক্রমাগত বাংলার বাইরের বাঙালিদের পর আক্রমণ চলছে,কিন্তু 2001 এর পর আর কোনো প্রতিবাদ হয়নি ।

সারা দেশে এই উদ্বাস্তুদের জন্য আজীবন কাজ করে গিয়েছেন দীনেশপুরের পুলিনবাবু,আমার বাবা ।

আমাকে ত তাঁদের পাশেই থাকতে হবে ।

চলে যাওয়ার বেলায় মন ভালো নেই । তাই কোথাও যাওয়া হল না ।কারুর সঙ্গে শেষ দেখাও হচ্ছে না ।

বাংলায় আর ফেরা হবে না ।

আপনাদের ভালোবাসা,সহযোগিতার জন্য ধন্যবাদ ।

भारत के कुलीन वाम नेतत्व को उखाड़ फेंकना सबसे जरूरी पलाश विश्वास

भारत के कुलीन वाम नेतत्व को उखाड़ फेंकना सबसे जरूरी
पलाश विश्वास


उत्तर आधुनिकता और मुक्तबाजार के समर्थक दुनियाभर के कुलीन विद्वतजनों ने इतिहास,विचारधारा और विधाओं की मृत्यु की घोषणा करते हुए पूंजीवादी साम्राज्यवाद और समंती ताकतों की एकतरफा जीत का जश्न मनाना शुरु कर दिया था।लेकिन पूंजीवाद के गहराते संकट के दौरान वे ही लोग इतिहास,विचारधारा और विधाओं की प्रासंगिकता की चर्चा करते अघा नहीं रहे हैं।
दुनियाभर में प्रतिरोध,जनांदोलन और परिवर्तन के लिए वामपंथी नेतृ्तव कर रहे हैं।यहां तक कि जिस इराक के ध्वंस की नींव पर अमेरिका इजराइल के नेतृत्व में मुक्तबाजार की नरसंहारी यह व्यवस्था बनी,उसी इराक में वामपंथियों की सरकार बनी।
इसके विपरीत भारत में कुलीन सत्तावर्ग ने शुरु से वामपंथी आंदोलन पर कब्जा करके जमींदारों,रजवाडो़ं के कुलीन वंशजों का वर्गीय जाति एकाधिकार बहाल रखते हुए सर्वहारा और वंचित तबकों से विश्वास घात किया और दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के हितों के विपरीत सत्ता समीकरण साधते हुए भारत में वामपंथी आंदोलन के साथ ही प्रतिरोध और बदलाव की सारी संभावनाएं खत्म कर दी।
सिर्फ वंचितों को ही नहीं,बल्कि समूची हिंदी पट्टी को नजरअंदाज करते हुए वामपंथियों ने भारत में मनुस्मृति राज बहला करने में सबसे कारगर भूमिका निभाई।
वामपंथी मठों और मठाधीशों को हाल हाल तक ऐसे मौकापरस्त सत्ता समीकरण का सबसे ज्यादा लाभ मिला है।तमाम प्रतिष्ठानों और संस्थाओं में वे बैठे हुए थे और उन्होंने आपातकाल का भी समर्थन किया।बंगाल के ऐसे ही वाम बुद्धिजीवी और मनीषी वृंद वाम शासन के अवसान के साथ दीदी की निरंकुश सत्ता के सिपाहसालार हो गये।
सामाजिक शक्तियों के जनसंगठनों और मजदूर यूनियनों को भी वामपंथी नेतृत्व ने प्रतिरोध से दूर रखा।
भारत में अगर समता और न्याय पर आधारित समाज का निर्माण करना है तो ऐसे जनविरोधी वाम नेतृ्त्व को,सत्ता समर्थक मौकापरस्त मठों और मठाधीशों को उखाड़ फेंकने की जरुरत है।वंचितों और सर्वहारा तबकों के लिए वाम नेतृ्तव अपने हाथों में छीनकर लेने का वक्त आ गया है।
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारतीय जनता के स्वतंत्रता संग्राम के कारण आजादी मिली है लेकिन जातिव्यवस्था का रंगभेद अभी कायम है जबकि ब्रिटेन की राजकुमार का विवाह भी अश्वेत कन्या से होने लगा है और इस विवाह समारोह में पुरोहित से लेकर संगीतकार,गायक तक अश्वेत थे।इसके विपरीत भारत में जो मनुस्मृति अनुशासन कायम हुआ है,उसके लिए वामपंथ के जनिविरोधी कुलीन वर्गीय जाति नेतृ्तव,मठों और मठाधीशों की जिम्मेदारी तय किये बिना,समाप्त किये बिना भारतीय जनता की मुक्ति तो क्या लोकतंत्र,स्वतंत्रता,नागरिक और मानवाधिकार,विविधता,बहुलता की विरासत बचाना भी मुश्किल है।

Saturday, May 19, 2018

मेरा जन्मदिन कुलीन वर्ग के लिए एक दुर्घटना ही है। पलाश विश्वास

मेरा जन्मदिन  कुलीन वर्ग के लिए एक दुर्घटना ही है। 
पलाश विश्वास   


मेरे दिवंगत पिता पुलिनबाबू
अब इस महाभारत में मेरी हालत कवच कुंडल खोने के बाद कर्ण जैसी है।कुरुक्षेत्र में मारे जाने के लिए नियतिबद्ध क्योंकि नियति नियंता कृष्ण मेरे विरुद्ध हैं। 

उत्तराखंड और झारखंड में लोग मुझे पलाश नाम से ही जानते रहे हैं,किसी विश्वास को वे नहीं जानते। 

हमें दलित होने के सामाजिक यथार्थ को बंगाल आने से पहले कोई अहसास नहीं था। 
तेभागा और ढिमरी ब्लाक की विरासत के मध्य जनमने की वजह से हम जन्म जात कम्युनिस्ट थे जन्मांध की तरह।इसीलिए जातिव्यवस्था के सच को हमने भी भारतीय कम्युनिस्टों की तरह दशकों तक नजरअंदाज किया। 
  
एक बड़े सच का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि मार्टिन जान को मेरी याद तो है लेकिन पलाश विश्वास को वे पहचान नहीं पा रहे।दरअसल उत्तराखंड और झारखंड में लोग मुझे पलाश नाम से ही जानते रहे हैं,किसी विश्वास को वे नहीं जानते।क्योंकि राजकिशोर संपादित परिवर्तन में नियमित लिखने से पहले तक मैं पलाश नाम से ही लिख रहा था।

उत्तराखंड में किसान शरणार्थी  आंदोलनों में लगातार पिताजी की सक्रियता,चिपको आंदोलन और नैनीताल समाचार,उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी की वजह से तराई और पहाड़ में लोग मुझे पलाश नाम से ही जानते रहे हैं।

मेरी कहानियां,कविताएं 85-86 तक इसी नाम से छपती रही हैं।पलाश विश्वास के यथार्थ से मेरा सामना देरी से ही हुआ।

बाबासाहेब भीमराव  अंबेडकर को पढ़ने से पहले,बंगाल में जाति वर्चस्व के सामने अकेला,असहाय,बहिस्कृत हो जाने से पहले भारतीय सामाजिक यथार्थ की मेरी कोई धारणा नहीं थी।

भारत विभाजन की त्रासदी के नतीजतन विभाजनपीड़ित जो बंगाली शरणार्थी बंगाल के इतिहास भूगोल से हमेशा के लिए बाहर कर दिये गये,वे बंगाल की समाजव्यवस्था से भी बाहर हो गये।उन्हें जाति व्यवस्था के दंश से मुक्ति मिल गयी।

वैसे भी मतुआ आंदोलन की वजह से बंगाल में अस्पृश्यता नहीं थी।लेकिन सिर्फ अनुसूचितों के बंगाल से बाहर कर दिये जाने के कारण उन्हें मनुस्मृति अनुशासन से मुक्ति मिल गयी।

जिसके नतीजतन मौजूद अभूतरपूर्व रोजगार संकट मुक्तबाजार की वजह से उत्पन्न होने की वजह से आरक्षण के जरिये नौकरी निर्णायक होने और अचानक 2003 में नागरिकता संशोधन विधेयक के तहत देशभर में बसे विभाजनपीड़ितों के देश निकाले का फतवा संघ परिवार के मनुस्मृति अश्वमेध एजंडा के तहत जारी करने से पहले तक देश भर में बंगाली शरणार्थियो को रोजगार और सामाजिक हैसियत के लिए आरक्षण की कोई जरुरत नहीं पड़ी।

वे भी उत्तराखंड की आम जनता की तरह अब भी सवर्ण होने की खुशफहमी में संघ परिवार की पैदल सेना हैं।वे पुलिनबाबू और उनके किसी साथी को याद नहीं करते।इन्ही के बीच हूं।


अपने पिता पुलिनबाबू से मेरे वैचारिक मतभेद की वजह यही थी कि वे बंगाल के यथार्थ की त्रासदी झेल चुके थे।

कम्युनिस्ट पार्टी के ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह में विश्वासघात से पहले अनुसूचित होने के अपराध में वे करोडो़ं बंगाली शरणार्थियों की तरह बंगाल से खदेड़ दिये गये थे और अनुसूचित बंगाली शरणार्थियों का होमलैंड अंडमान में बनाने की अपनी मांग की वजह से ज्योति बसु के साथ उनका बंगाल में टकराव हो गया था क्योंकि शरणार्थी आंदोलन में तब कम्युनिस्टों का कब्जा था।

इसके अलावा पुलिनबाबू  गुरुचांद ठाकुर के अनुयायी थे और बाबासाहब की विचारधारा को अपने मार्क्सवाद से जोड़कर चलते थे।वे जोगेंद्र नाथ मंडल का आजीवन समर्थन करते थे।

पुलिनबाबू ने शुरु से ही देशभर में बंगाली शरणार्थियों के लिए मातृभाषा का अधिकार और आरक्षण की मांग उठायी जिसके लिए पचास के दशक से एकमात्र पीलीभीत के युवा वकील नित्यानंद मल्लिक उनके साथ थे और बाकी बंगाली शरणार्थी जाति व्यवस्था से मुक्ति के बाद फिर दलित बनने को तैयार नहीं थे।उन्हें बांग्ला भाषा में पढ़ने लिखने से कोई मतलब नहीं है।

इसके विपरीत हमें दलित होने के सामाजिक यथार्थ को बंगाल आने से पहले कोई अहसास नहीं था।

स्कूल कालेज में हमारे सारे गुरु ब्राह्मण थे और उनमें से ज्यादातर कम्युनिस्ट थे और उन्ही की वजह से मैं आजतक लिखता पढ़ता रहा हूं।उन्होंने मार्क्सवाद का पाठ पढ़ाया लेकिन भारतीय सामाजिक यथार्थ से वे भी अनजान बने हुए थे।

तेभागा और ढिमरी ब्लाक की विरासत के मध्य जनमने की वजह से हम जन्म जात कम्युनिस्ट थे जन्मांध की तरह।

इसीलिए जातिव्यवस्था के सच को हमने भी भारतीय कम्युनिस्टों की तरह दशकों तक नजरअंदाज किया।

2003 तक बंगाल और त्रिपुरा के कम्युनिस्ट नेताओं और मंत्रियों से मेरे अंतरंग संबंध थे।इसके अलावा देशभर में वामपंथी तमाम लोग मेरे मित्र थे।

इसी बीच 2001 में उत्तराखंड की तराई में 1950 से बसे बंगाली शरणार्थियों को उत्तराखंड की पहली केसरिया सरकार ने बांग्लादेशी करार दिया और इसके खिलाफ उत्तराखंड की जनता के भारी समर्थन के साथ बंगाली शरणार्थियों ने व्यापक आंदोलन किया। इस आंदोलन के समर्थन में और देश भर में बसे बंगालियों के पक्ष में  संघ परिवार के हमलों के खिलाफ हमने कोलकाता में वाम नेताओं और मंत्रियों,कोलकाता के लेखकों,कवियों,कलाकारों और रंगकर्मियों के सहयोग से सहमर्मी नामक संगठन बनाया। 

 बड़े लेखकों,संस्कृतिकर्मियों के साथ खड़े होने के कारण मरीच झांपी नरसंहार की अपराधी बंगाल की वाम सरकार के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सीध केंद्र सरकार से बातचीत की और तब जाकर बंगाली खदेड़ो अभियान तात्कालिक तौर पर स्थगित हो गया।इस कामयाबी के पीछे नीतीश विश्वास और कपिलकृष्ण ठाकुर का बड़ा योगदान रहा है।

2003 में नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ हम देशभर में आंदोलन कर रहे थे।2001 में पिताजी का कैंसर से निधन हो गया था बंगाली शरणार्थियों को बांग्लादेशी करार दिये जाने के बाद।

1960 में पुलिनबाबू संघ प्रायोजित असम में बंगालियों के खिलाफ दंगों के दौरान वहां दंगापीड़ितों के बीच हर जिले में उन्हें वहां बनाये रखने के लिए सक्रिय थे।

पिता की मृत्यु के बाद ब्रह्मपुत्र बीच फेस्टिवल में बाहैसियत असम सरकार के अतिथि,मुख्यअतिथि त्रिपुरा के शिक्षामंत्री और कवि अनिल सरकार के साथ मालीगांव अभयारण्य के उद्घाटन  के लिए जाते हुए पुलिस पायलट के रास्ता भटकने के कारण दंगा पीड़ित असम के नौगांव मालीगांव जिलों के उन्हीं इलाकों में हम गये जहां मेरे पिता पुलिनबाबू और मेरे चाचा डा. सुधीर विश्वास के बाद तब तक बाहर का कोई बंगाली और शरणार्थी नेता नहीं गया था।कई पीढ़ियों के बाद वे पुलिनबाबू को भूले नहीं हैं।

असम से वापसी के बाद से पिताजी बंगाली शरणार्थियों की नागरिकता और उनके नागिरक और मानवाधिकार की सुरक्षा के लिए मुखर हो गये।

असम आंदोलन के दौरान मैं धनबाद से होकर मेरठ में था और आसू और असम गण परिषद के समर्थन में खड़ा था।प्रफुल्ल महंत और दिनेश गोस्वामी से हमारी मित्रता थी।लेकिन पिताजी इस आंदोलन को अल्फा और संघ परिवार का बंगालियों के खिलाफ असम और पूर्वोत्तर में नये सिरे से दंगा अभियान मान रहे थे।

उसी समय पुलिनबाबू बाकी देश में भी संघ परिवार के बंगाली खदेड़ो अभियान शुरु करने की चेतावनी दे रहे थे।

वामपंथी होने की वजह से तब भी हम लगातार भारत में मनुस्मृति राज और हिंदुत्व के पुनरूत्थान की उनकी चेतावनी को सिरे से खारिज कर रहे थे।

उन्होंने मरीचझांपी अभियान के खिलाफ जिस तरह शरणार्थियों को चेताया,उसीतरह अस्सी के दशक से अनुसूचितों के खिलाफ संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडा के खिलापफ मरण पर्यंत आंदोलन चलाते रहे।

मैं उनसे असहमत था और देश भर के शरणार्थी मरीचझांपी के समय उत्तर भारत में सर्वत्र उनके साथ होने के बावजूद नागरिकता और आरक्षण के सावल पर उनके साथ नहीं थे।

चूंकि कक्ष दो में पढ़ते हुए पिताजी के तमाम आंदोलनों और देशभरके किसानों,शरणार्थियों के हक में उलके तमाम पत्र व्यवहार का मसौदा  सिलसिलेवार मतभेद के बावजूद मैं ही तैयार करता रहा हूं तो देशभर में शरणार्थी मुझे जानते रहे हैं।

2003 में नागरिकता संशोधन विधेयक भाजपाई गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी के द्वारा पेश होन के बाद मैं झारखंड में जिसतरह चौबीसों घंटे आदिवासियों और कामगारों के दरवाजे पर दस्तक देते रहने से बेचैन हो रहा था,वही हाल हो गया।

पिताजी की अनुपस्थिति में देश भर के शरणार्थियों के फोन आने लगे।मैं भी इस जिम्मेदारी से बेचैन हो गया।

 तब वामपंथी मित्रों,नेताओं और मंत्रियों से मेरी लगातार बात होती रही।हमने इस सिलसिले में राइटर्स बिल्डिंग में बंगाल सरकार के शक्तिशाली मंत्री कामरेड सुभाष चक्रवर्ती के साथ प्रेस कांफ्रेंस किया तो त्रिपुरा के आगरतला में माणिक सरकार  के सबसे वरिष्ठ मंत्री अनिल सरकार के साथ प्रेस कांप्रेस किया। 

बंगाल में कामरेड विमान बोस,कामरेड सुभाष चक्रवर्ती,कामरेड कांति विश्वास, कामरेड कांति गांगुली, कामरेड उपने किस्कू और त्रिपुरा में कामरेड अऩिल सरकार और माणिक सरकार के तमाम मंत्रियों और बंगाल के तमाम सांसदों से रोजाना संपर्क के मध्य संसद में वामपंथियों ने आडवाणी के नागरिकता संशोधन विधेयक का समर्थन कर दिया।

मैंने तुरंत फोन लगाया सबको जनसत्ता के दफ्तर में बैठे हुए और सभीने कहा कि वामपंथियों ने बिल का विरोध किया है।

मैंने उन सबको मेरी मेज पर संसद की कार्यवाही का ब्यौरा पढ़कर सुनाया और उसी वक्त मैंने उनके साथ संबंध विच्छेद कर लिया।

वामपंथियों के समर्थन के साथ नागरिकता संशोधन कानून पास होने के बाद मैं कभी बांग्ला अकादमी रवींद्र सदन परिसर से लेकर कोलकाता पुस्तक मेले में कभी नहीं गया।

इसी कानून की वजह से ही बंगाल में शरणार्थी दलित वोट बैंक वामपंथ से हमेशा के लिए अलग हो गया,जिसका कोई अफसोस वामपंथी कुलीन नेतृत्व को नहीं है क्योंकि शुरु से ही यह वर्ग इन बंगाली दलित शरणार्थियों के बंगाल में बने रहने के खिलाफ रहा है और उनके देश निकाले के संघ परिवार के नरसंहारी अभियान में वे साथ साथ हैं अपने वर्गीय जाति वर्चस्व के लिए।

पंचायत चुनाव में आदिवासियों के साथ छोड़ने के बाद बंगाल में वामपंथ की वापसी अब असंभव है।

दीदी को सत्ता जिस जमीन आंदोलन की वजह से मिली,उसके तमाम योद्धा आदिवासी ही थे।जिनमे से ज्यादा तर माओवादी ब्रांडेड होकर या तो मुठभेड़ में मार दिये गये या फिर जेल में सड़ रहे हैं।

वामपंथ और दीदी के इस विश्वासघात का बदला लेने के लिए सारे दलित शरणार्थी और आदिवासी अब संघ परिवार की शरण में हैं,जानबूझकर वे हिटलर के गैस चैंबर में दाखिल हो चुके हैं।

मेरी लालगढ़ डायरी अकार में छपी थी।उस युद्ध की यह त्रासदी है और घनघोर अंधायुग का यथार्थ भी यही है।

उसी समय अपने मित्र कृपा शंकर चौबे और अरविंद चतुर्वेद के साथ मैं महाश्वेता देवी संपादित बांग्ला पत्रिका भाषा बंधन के संपादकीय में था और इसके संपादकीय में हमने वीरेन डंगवाल,पंकज बिष्ट और मंगलेश डबराल को भी शामल कर रखा था।

 नवारुण भट्टाचार्य संपादकीय विभाग के मुखिया थे। 

महाश्वेता देवी और नवारुण दा के गोल्फग्रीन के घर में बंगाल के तमाम साहित्यकारों ,सामाजिक कार्यकर्ताओं और संस्कृति कर्मियों का जमघट लगा रहता था।

महाश्वेता देवी से मैंने इस नागरिकता बिल के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व करने का निवेदन किया तो उन्होंने कहा कि यह आंदोलन तुम करो और बाकी लोग भी कन्नी काट गये।

मैं सिरे से अकेले पड़ गया।

महाश्वेता देवी और भाषा बंधन का साथ भी छूट गया।

शरणार्थियों के हकहकूक के सवाल पर दशकों पुराना संबंध टूट गया।हमारे  अलग होने के बाद आनंदबाजार समूह की देश पत्रिका की तरह भाषा बंधन भी बंगाल की भद्रलोक संस्कृति की पत्रिका बन गयी है।

वंचित सर्वहारा के लिए लिखने वाले नवारुण दा भी कैंसर का शिकार हो गये,जिन्हें देखने के लिए भी कुछ सौ मीटर की दूरी पर दीदी के राज में जन आंदोलनों की राजमाता बनी महाश्वेता देवी नहीं गयी।

यह माता गांधारी का हश्र है।

मेरे पिता पुलिनबाबू आजीवन जिनके लिए लड़ते रहे,उनके हक में देश भर में मेरे वैचारिक मित्र मेरे साथ नहीं थे।

कोई राजनीतिक दल या सामाजिक संगठन हमारे साथ नहीं था।

एसे निर्णायक संकट के दौरान भी बामसेफ ने 2003 में नागपुर में इस नागरिकता बिल के विरोध में एक सम्मेलन आयोजित किया,जहां हम बंगाल के तमाम वामपंथी शरणार्थी नेताओं और बुद्धिजीवियों के साथ पहुंचे।

हमें बामसेफ और महाराष्ट्र,मराठी प्रेस का समर्थन संघ परिवार के नागरिकता संशोधन विधेयक और अनुसूचितों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ संघ परिवार के नरसंहारी अश्वमेध अभियान के खिलाफ तब से लगातार मिलता रहा है।

तभी हमने अंबेेडकरको सिलसिलेवार पढ़ने की शुरुआत की और भारतीय यथार्थ के आमने सामने खड़ा हो गया।

हालांकि बामसेफ के सर्वेसर्वा वामन मेश्राम से वैचारिक मतभेद की वजह से हम अब बामसेफ से देश भर के  अपने साथियों के साथ अलग थलग हो गये,लेकिन यह भी सच है कि एकमात्र वामन मेश्राम ने ही बामसेफ के जरिये संघ परिवार के अनुसूचितों, शरणार्थियों,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ संघ परिवार और मुक्त बाजार के नरसंहारी एजंडा के खिलाफ मेरे युद्ध में मेरा साथ दिया,मेरे वामपंथी साथियों ने नहीं।

बामसेफ के मंच से ही मैंने लगातार एक दशक तक देश भर में मुक्तबाजार और संघ परिवार के एजंडे के खिलाफ आम जनता को सीधे संबोधित किया।

अब बामसेफ का राष्ट्रव्यापी संगठन और मंच  मेरे पास नहीं है और मैं फिर से अरेले हूं।

इंडियन एक्सप्रेस का सुरक्षा कवच भी मेरे पास नहीं है।

अब इस महाभारत में मेरी हालत कवच कुंडल खोने के बाद कर्ण जैसी है।कुरुक्षेत्र में मारे जाने के लिए नियतिबद्ध क्योंकि नियति नियंता कृष्ण मेरे विरुद्ध हैं।

सारे मठ,मठाधीश और उनकी सेनाएं मेरे खिलाफ है और फिरभी मेरा युद्ध जारी है।

इस युद्ध में ही मुझे तराई और पहाड़ के नये पुराने मित्रों के साथ की उम्मीद है और इसीलिए कोलकाता का मोर्चा छोड़कर यह महाभारत अपने घर से लड़ने का फैसला मेरा है,चाहे परिणाम कुरुक्षेत्र का ही क्यों न हो।

बामसेफ और अंबेडकरी  आंदोलन में सक्रियता की वजह से 2003 से पत्रकारिता और साहित्य में मैं बहिस्कृत अछूत हूं तो अपने जयभीम कामरेड अभियान और जाति विनाश के बाबासाहेब के मिशन के तहत वर्गीय ध्रूवीकरण की अपनी सामाजिक सांस्कृतिक रचनात्मकता और पर्यावरण चेतना के तहत हिमालय और उत्तराखंड से नाभिनाल के अटूट संबंध की वजह से अंबेडकरी आंदोलन के लिए भी मैं शत्रूपक्ष हूं।

मेरा जन्मदिन  कुलीन वर्ग के लिए एक दुर्घटना ही है।

आदिवासियों का व्यापक भगवाकरण सबसे ज्यादा खतरनाक है

आदिवासियों का व्यापक भगवाकरण सबसे ज्यादा खतरनाक है
पलाश विश्वास

आदिवासी दुनियाभर में सबसे ज्यादा सामाजिक है।इस लिहाज से अगर सामाजिक होना मनुष्यता है तो असल में आदिवासी ही मनुष्य हैं,जिन्हें सत्ता वर्ग की पवित्र पुस्तकों में राक्षस, दानव, दैत्य, असुर,दस्यु,वानर,किन्नर न जाने क्या क्या लिखा कहा गया है। हमारा सारा मिथकीय इतिहास,साहित्य और धर्मग्रंथ आदिवासियों के विरुद्ध उऩके कत्लेआम के पक्ष में हैं। 

 बंगालभर में आदिवासी इलाकों में झाड़ग्राम,पुरुलिया,पूर्व और पश्चिम मेदिनीपुर,उत्तर बंगाल में भाजपा को बची हुई सीटों में ज्यादातर मिली हैं और कई जिलों में तो पंचायत समितियों में विपक्ष का पूरा सफाया होने के बावजूद भाजपा को सीटें मिली हैं और आदिवासी जिलों में ऐसा ज्यादा हुआ है। झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी राज्यों का भगवाकरण पहले ही संपन्न है।

ब्रिटिश मिलिट्री हिस्ट्री में संथाल विद्रोह,भील विद्रोह,चुआड़ विद्रोह का सिलसिलेवार ब्यौरा अंग्रेज सेनापतियों ने लिखा है।जिसमें आखिरी आदमी या औरत के जिंदा बचे रहने तक किसी आदििवासी के मोर्चा नहीं छोड़ने की घटनाओं का मार्मिक विवरण है।

भारत में पलाशी के युद्ध के बाद से जितने किसान विद्रोह हुए हैं,उनमें आगे बढ़कर कुर्बानी देने में आदिवासी सबसे आगे रहे हैं।

चार साल तक झारखंडा का चप्पा चप्पा छानते रहने के बाद पूर्वोत्तर और मध्यभारत समेत समूचे आदिवासी भूगोल में भटकते रहने की वजह से मेरी धारणा रही है कि आदिवासी दलितों,पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की तरह अपने को न असुरक्षित महसूस करते हैं और न अपनी खाल बचाने के लिए या किसी दूसरे फायदे के लिए मौकापरस्त होते हैं।

हम पठानों मुगलों के खिलाफ लगातार युद्ध लड़ने वाले जिन राजपूतों की बात करते हैं और गर्व से फूले नहीं समाते,वे भी आदिवासी हैं,जिनका हिंदुत्वकरण बाकी अनार्यों की तरह हुआ है।

कर्नाटक में जो सत्ता का खेल चल रहा है,वह भारतीय लोकतंत्र का सच है और यही भारतीय राजनीति है,जिसका जनता से कोई नाता नहीं है।

अरबपति कुलीन सत्तावर्ग के इस खेल में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है और लोकतंत्र,संविधान की हत्या का मातम मनाने वाले लोगों की तलवारबाजी से भी मुझे कुछ लेना देना नहीं है क्योंकि व्यवस्था बदलने के लिए,समता और न्याय पर आधारित समाज बनाने के लिए वे अपने वर्गीय जाति हित या दृष्टिकोण छोड़कर जमीन पर आम जनता के साथ किसी भी बिंदू पर न खड़े हैं और न खड़े हो सकते हैं।

वे सभी ज्यादा पढ़े लिखे कुलीन सत्तावर्ग के ही राजनीतिक जनप्रतिनिधियों की तर्ज पर सम्मानित,प्रतिष्ठित,पुरस्कृत चैंबरदार कुर्सीवाले लोग हैं और बिना कोई जोखिम उठाये,बिना कुछ खोये अपनी विद्वता के मुताबिक अपना अपना पक्ष पेश कर रहे हैं और न हालात बदलने के लिए वे गंभीर हैं और न वे ऐसा कर सकते हैं।

क्योंकि  वे ही नहीं,हम तमाम लोग उपभोक्ता ज्यादा हैं और नागरिक कतई नहीं।

हम राजनीतिक भले हों,सामाजिक तो कतई नहीं हैं और हमारा कोी सामुदायिक जीवन वातानुकूलित च्रचा परिचर्चा के दायरे से बाहर कतई नहीं है।

इसीलिए हमारी सारी दिलचस्पी राजनीति में है क्योंकि वह सीधे नकद भुगतान की व्यवस्था है। 

समाज और सामाजिक आंदोलन में सक्रियता का मतलब सिर्फ खोना है,पाने की कोई उम्मीद नहीं है और ऐसा नुकसानवाला सौदा शेयरबाजार की मुक्तबाजार बिरादरी कर सकती है,तो करके दिखायें।

आदिवासी दुनियाभर में सबसे ज्यादा सामाजिक है।इस लिहाज से अगर सामाजिक होना मनुष्यता है तो असल में आदिवासी ही मनुष्य हैं,जिन्हें सत्ता वर्ग की पवित्र पुस्तकों में राक्षस, दानव, दैत्य, असुर,दस्यु,वानर,किन्नर न जाने क्या क्या लिखा कहा गया है। हमारा सारा मिथकीय इतिहास,साहित्य और धर्मग्रंथ आदिवासियों के विरुद्ध उऩके कत्लेआम के पक्ष में हैं।

आदिवासियों का समूचा जीवनचक्र सामुदायिक हैं जो समानता और न्याय पर आधारित है और उनके वहां स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं है।

बंगाल में वाम और कांग्रेस के सफाये के बाद अभूतपूर्व हिंसा के मध्य तीस प्रतिशत सीटें निर्विरोध जीत लेने के बाद नब्वे प्रतिशत सीटों पर सत्तादल के कब्जे और बाकी बची सीटों पर संघ परिवार के वर्चस्व की ताजा घटना भी मेरे लिए हैरतअंगेज नहीं है।

मुझे बल्कि ताज्जुब यही हुआ कि बंगालभर में आदिवासी इलाकों में झाड़ग्राम,पुरुलिया,पूर्व और पश्चिम मेदिनीपुर,उत्तर बंगाल में भाजपा को बची हुई सीटों में ज्यादातर मिली हैं और कई जिलों में तो पंचायत समितियों में विपक्ष का पूरा सफाया होने के बावजूद भाजपा को सीटें मिली हैं और आदिवासी जिलों में ऐसा ज्यादा हुआ है। झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी राज्यों का भगवाकरण पहले ही संपन्न है।

दस साल तक अंबेडकरी आंदोलन के तहत बामसेफ के मंच पर देशभर में मैं यही शिकायत करता रहा कि कि संघ परिवार और माओवादियों को छोड़कर आदिवासी इलाकों में कोई नहीं जाता और अंबेडकरी  तो कतई नहीं जाते। 

अंबेडकरी लोग भी हमसे परहेज करते हैं क्योंकि हम जाति को मजबूत करने के बजाये जाति विनाश को ही बाबासाहेब का मिशन मानते हैं और सर्वहारा वर्ग के वर्गीय ध्रूवीकरण को अनिवार्य मानते हैं।

जल जंगल जमीन के हकहकूक के सवाल पर आदिवासियों के खिलाफ कारपोरेट राष्ट्रशक्ति के नरसंहार अभियान के खिलाफ लोकतंत्र और राजनीति दोनों खामोश हैं।गैरआदिवासी बहुसंख्य जनता हिंदू सिख बौद्ध ईसाई या मुसलमान किसी को आदिवासियों से कुछ लेना देना नहीं है।

अभी पिछले दिनों एससी एसटी कानून के खिलाफ आयोजित भारत बंद का देशे के तमाम आदिवासी इलाकों में व्यापक असर हुआ था और इस बंद की सफलता में आदिवासियों की नेतृत्वकारी भूमिका भी थी।

मीडिया ने अपनी रपटों में आदिवासियों का कहीं जिक्र नहीं किया और इसे सिरे से दलितों का आंदोलन बता दिया तो दलित नेताओं ने भी भूलकर आदिवासियों का जक्र नहीं किया।

 कहने को बहुजन में आदिवासी भी शामिल हैं लेकिन आदिवासी को सत्तावर्ग की तरह गैरआदिवासी जनता भी अलग थलग करती है।

याद करें कि गुजरात के दंगों में कत्लेआम के बाद लूटपाट में आदिवासियों के शामिल होने की खबर आयी थी।

सामंती और साम्राज्यवादी ताकतें  सैन्य जीत से पहले शत्रुओं की भाषा और संस्कृति को खत्म करती है। इस देश में विजेताओं ने हजारों साल से यह सिलसिला जारी रखा है और मोहनजोदोड़ो हड़प्पा सभ्यता की कोई विरासत,उनकी भाषा,उनकी लिपि,उनका साहित्यऔर उनका इतिहास बचा नहीं है।नष्ट कर दिया गया है।

भारत का सिलसिलेवार कोई इतिहास सिर्फ इसलिए नहीं है  क्योंकि विजेताओं ने पराजितों का इतिहास भूगोल,संस्कृति भाषा,विरासत सबकुछ नष्ट कर दिया और अपने इतिहास और साहित्य में मौजूदा भारत में आदिवासियों के कत्लेआम की तरह इसे न्यायोचित साबित किया है।

दलितों,पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का भगवाकरण होने  की वजह से ही भारत अब हिंदू राष्ट्र है और यहां राजकाज मनुस्मृति का है,सत्ता का रंग बेमतलब है क्योंकि यह सीधे तौर पर वर्ग जाति एकाधिकार है।

इस एकाधिकार को तोड़कर बदलाव के लिए जाति के विनाश और वंचितों के वर्गीय ध्रूवीकरण में इसी व्यवस्था के पराजीवी पढ़े लिखे सुविधा संपन्न क्रयशक्तिसंपन्न वर्ग की जाति धर्म निर्विशेष कोई दिलचस्पी नहीं है।

आजादी के बाद दलितों और पिछड़ों,अल्पसंख्यकों की तरह आदिवासियों में भी पढ़े लिखे लोगों का एक बड़ा नया तबका पैदा हो गया है और आदिवासियों के भगवेकरण में इसी तबके का हाथ सबसे ज्यादा है।

झारखंड आंदोलन के दौरान इसी पढ़े लिखे तबके के कारण झारखंड का पूरीतरह भगवाकरण हो गया तो यही किस्सा छत्तीसगढ़ का और बाकी आदिवासी भूगोल का भी है।

संघ परिवार ने जिस तेजी के साथ दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, मुसलमानों, सिखों, बौद्धों, ईसाइयों का भगवाकरण किया है,उतनी ही तेजी से हिंदुत्व की राजनीति के सामने प्रतिरोध की संभावनाएं खत्म होती गयी हैं।

हम पढ़े लिखे प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष लोग इस भगवेकरण की ही संस्कृति में शामिल हैं और खुद को राजनीतिक तौर पर ईमानदार साबित करने के लिए हिंदुत्व का एजंडे का विरोध करते हैं।यह अकादमिक शुद्धतावाद है जो धार्मिक शुद्धतावाद का ही पर्याय है।

आदिवासियों के  इसी बिरादरी में शामिल होने के बाद किसी प्रतिरोध की कोई संभावना मुझे नजर नहीं आती चाहे आप पवित्र धर्मग्रंथ की तरह संविधान और लोकतंत्र का मंत्रोच्चार करें, वैचारिक संवाद करें या सीधे तौर पर अपना अपना राजनीतिक सत्ता समीकरण तैयार करके हालात बदलने का दावा करें।


सिर्फ दो ही तरह के लोग हैं। धृतराष्ट्र या फिर अश्वत्थामा। अंधा युग कभी खत्म नहीं हुआ पलाश विश्वास


सिर्फ दो ही तरह के लोग हैं।
धृतराष्ट्र या फिर अश्वत्थामा।
अंधा युग कभी खत्म नहीं हुआ
पलाश विश्वास
महाभारत का युद्ध कभी खत्म ही नहीं हुआ है और अब सिर्फ दो ही तरह के लोग हैं।
धृतराष्ट्र या फिर अश्वत्थामा। नरसंहार अभियान के मध्य धृतराष्ट्र बने हम मीडिया संजय के मार्फत मृत्यु के उत्सव का आंखों देखा हाल देखते हुए अपना ही राजकाज,अपना ही वर्चस्व जारी रखने के लिए मनुष्यता और प्रकृति के विरुद्ध युद्ध में जीत हासिल करने के लिए आकुल व्याकुल हैं तो हर स्त्री गांधारी माता है।वंश ध्वंस के महाभारत के यथार्थ के सच का सामना करने से इंकार करती हुई आंखों में पट्टी।हर आम नागरिक अश्वत्थामा की तरह जख्मी,अभिशप्त।

1950 में मेरे पिता और मेरी मां बंगाल और ओड़ीशा होकर अपने साथियों के साथ ओड़ीशा के चरबेटिया कैंप से नैनीताल की तराई के घने जंगल में वीरान किछा स्टेशन पर उतरे थे।

हमने तराई में विभाजन के शिकार पूर्वी और पश्चिम पाकिस्तान,बर्मा से आये शरणार्तियों के दिलोदिमाग के रिसते हुए जख्म को देखा है।

हमने विकास के नाम विनाश के तहत भारतभर में विस्थापित करोड़ों लोगों को सबकुछ खोते हुए देखा है।

फिरभी हमें अंदाजा नहीं था कि अपना घर और सबकुछ खोकर असुरक्षित भविष्य की ओर यात्रा की त्रासदी कितनी भयानक होती होगी और यह यंत्रणा भारत विभाजन के बाद से लेकर अबतक पीढ़ी दर पीढ़ी आम लोग कैसे सहन कर रहे होंगे।

हमें अंदाजा नहीं है कि कैसे लोग रोजगार के लिए अपना घर,गांव,शहर छोड़कर निकल जाते हैं और फिर कभी लौट नहीं पाते।

रोजगार के लिए विस्थापित होना और रोजगार छिन जाने के बाद विस्थापन,जल जंगल जमीन से विस्थापन का यह महाभारत अनंत है।

चालीस साल तक देशभर में भटकने के बाद खाली हाथ घर वापसी के दौर में विभाजन और विस्थापन के शिकार करोड़ों अश्वत्थामा की त्रासदी अब मेरी नियति है।

Friday, May 18, 2018

मुक्तबाजार का विकल्प मनुस्मृति राज है और अरबपतियों की सत्ता का तख्ता पलटने के लिए चुनावी राजनीति फेल है

यह जनादेश नहीं,मुक्त बाजार का वर्गीय.जाति वर्चस्व है।
मुक्तबाजार का विकल्प मनुस्मृति राज है और अरबपतियों की सत्ता का तख्ता पलटने के लिए चुनावी राजनीति फेल है
मुक्त बाजार के बिना प्रतिरोध 27 साल के वर्चस्व के बाद भी हम लोकतंत्र की खुशफहमी में जी रहे हैं तो हर घटना पर अचरच करना हमारे मौकापरस्त चरित्र का स्थाई भाव होना अनिवार्य है।
पलाश विश्वास
मुझे कर्नाटक में भाजपा की जीत से उसीतरह कोई अचरज नहीं हो रहा है,जैसे बंगाल में वाम शासन के अवसान और केंद्र में मनुस्मृति सत्ता से,या असम,मणिपुर और त्रिपुरा के भगवेकरण से।या यूपी बिहार में सामाजिक बदलाव की राजनीति के पटाक्षेप से।

विज्ञान का नियम है कि हर कार्य का परिणाम निकलता है और हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है।

हमने मुक्तबाजार का विकल्प चुनकर देश में लोकतंत्र,नागरिक और मानवाधिकार की हत्या कर दी है तो प्रकृति और पर्यावरण का सत्यानाश कर दिया है।

अंधों के देश में जलवायु और मौसम के कहर बरपाते तेवर से भी लोगों को अहसास नहीं है कि सत्ता की राजनीति का रंग चाहे जो हो,वह बाजार के एकाधिकार और करोड़पति अरबपति कुलीन सत्तावर्ग का वर्गीय जातीय एकाधिकार वर्चस्व का ही प्रतिनिधित्व करती है।

देश के सारे कायदे कानून आर्थिक सुधार के नाम पर बदले दिये गये हैंं।राजनीति ही नहीं, भाषा, साहित्य, कला, सिनेमा, मीडिया, विधाओं और माध्यमों का केंद्रीयकरण हो गया है।

किसानों और मजदूरों,आदिवासियों,दलितों का कत्लेआम हो रहा है।

स्त्री उपभोक्ता वस्तु बन गयी है और बलात्कार संस्कृति ने मनुस्मृति के स्त्री विरोधी अनुशासन को सख्ती से लागू कर दिया है।

न कानून का राज है और न संविधान कहीं लागू है।

 मुक्तबाजार के उपभोक्ता देश में कोई नागरिक ही नहीं है।

लोकतांत्रिक संस्थाएं समाप्त हैं तो केंद्र में जिसकी सत्ता होगी,बाकी देश में भी उसकी सत्ता अश्वमेध अभियान को रोक पाना असंभव है।

संघीय ढांचा खत्म है,गांव,देहात और जनपद बचे नहीं हैं, लोकतांत्रिक संस्थाएं बची नहीं हैं।

ऐसे में जनादेश बाजार ही तय करता है।

मुक्त बाजार के बिना प्रतिरोध 27 साल के वर्चस्व के बाद भी हम लोकतंत्र की खुशफहमी में जी रहे हैं तो हर घटना पर अचरच करना हमारे मौकापरस्त चरित्र का स्थाई भाव होना अनिवार्य है।

हम बार बार लिखते बोलते रहे हैं कि वाम का विचलन,बिकराव ने ही हिंदुत्व की राजनीति को निरंकुश बना दिया है।वाम राजनीति पर भी हिंदुत्व के वर्गीय जाति वर्चस्व कायम है जो किसानों, मजदूरों और बहुसंख्यक सर्वहारा के खिलाफ है।इसे हमारे मित्र वामपंथ का विरोध मानते हैं जबकि यह वामपंथ से वामपंथियों के विश्वासघात और उनके वैचारिक पाखंड का विरोध है,जो भारत में समता और न्याय पर आधारित समाज के निर्माण के रास्ते में सबसे बड़ा अवरोध है।वामपंथ के इस जनविरोधी नेतृत्व को बदले बिना वामपंथ की न कोई प्रासंगिकता है और न साख है।भले ही जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं और नेताओं की प्रतिबद्धता में किसी तरह के शक की गुंजाइश नहीं है।

बंगाल में निरंकुश सत्ता का प्रतिरोध करके अपना बलिदान करने वाले जमीनी कार्यकर्ता ही हैं और ऐसा बलिदान तेभागा,तेलंगना से लेकर अबतक जारी है।उनकी शहादत का भी वाम नेतृ्व ने असम्मान किया है।

केरल,त्रिपुरा और बंगाल में सीमाबद्ध वाम परिवर्तन विरोधी वर्गीय जाति हितों के पोषक में तब्दील है तो क्षत्रपों की निरंकुश सत्ता हिदुत्व की राजनीति के खिलाफ किसी वर्गीय ध्रूवीकरण की इजाजत नहीं देता।

बाजार जाति धर्म की अस्मिता को मजबूत बनाने में ही लगा है।

राजनीतिक आंदोलन भावनात्मक अस्मिता आंदोलन में तब्दील है तो जाति और वर्ग का वर्चस्व भी मजबूत होते जाना है औययही बात हिंदुत्व की राजनीति को सबसे मजबूत बनाती है।


इस मरे हुए वाम को जिंदा किया बिना,बहुसंख्य वंचित सर्वहारा जनता के वर्गीय ध्रूवीकरण के बिना केंद्र की मनुस्मृति सत्ता का तख्ता पलट करने का सपना देखना भी अपराध है।

कर्नाटक चुनाव परिणाम आने से पहले बंगाल में ममता दीदी की सत्तालोलुप राजनीति ने पंचायतों में विरोधियों के सफाये के लिए बेलगाम हिंसा का जो रास्ता चुना,वहीं बताता है कि ऐसे ही सत्तालोलुप क्षत्रपों के मोकापरस्त  गठबंधन और जनसरोकारों के बिना चुनावी समीकरण से विपक्ष का मोर्चा बना भी तो उसकी साख कैसी रहेगी।

ऐसे ही क्षत्रपों से जो खुद धर्म,भाषा,जाति,बाजार की राजनीति करते हों,हिंदुत्व की राजनीति के खिलाफ मोर्चाबंदी का नेतृत्व की हम अपेक्षा करें तो हम कुल मिलाकर हिंदुत्व की ही राजनीति के समर्थक बनकर खड़े  हैं और हमें इसका अहसास भी नहीं है।

हवा में तलवार भांजकर राष्ट्रशक्ति का मुकाबला नहीं किया जा सकता है क्योंकि लोकतंत्र और संविधान की अनुपस्थिति में बाजार समर्थित सत्ता ही राष्ट्रशक्ति में तब्दील है और हमने ऐसा होने दिया है।

हमने वर्गीय ध्रूवीकरण की कोई कोशिश किये बिना अस्मिता राजनीति की है और राष्ट्रविरोधी ताकतों के सांप्रदायिक जाति धार्मिक ध्रूवीकरण के खिलाफ कोई राजनीतिक सामाजिक आर्थिक आंदोलन चलाने की कोशिश भी नहीं की है।

धर्मांधों के देश में सबकुछ दैवी शक्ति पर निर्भर है।
तकनीक ने धर्मांधता को धर्मोन्माद में तब्दील कर दिया है।धर्मस्थलों की कुलीन सत्ता में कैद है लोकतंत्र,स्वतंत्रता और संप्रभुता और धर्म भी मुक्ताबाजार का है।

मनुस्मृति राज में हिंदुत्व की अस्मिता दूसरी सारी अस्मिताओं को आत्मसात कर चुकी है।

दैवी सत्ता के पुजारी धर्मांध उपभोक्ताओं के लिए ईश्वर से बड़ा कोई नहीं होता और उन्होंन वह ईश्वर गढ़ लिया है।

उस ईश्वर के मिथकीय चरित्र के गुण दोष की विवेचना करना धर्म के खिलाफ है।जैसे राम और कृष्ण की कोई आलोचना नहीं हो सकती.किसी भी धर्म के ईश्वर,अवतार,देवता,अपदेवता,मसीहा की आलोचना नहीं हो सकती ,उसीतरह धर्मांधों को मुक्तबाजार के किसी ईश्वर की कोई आलोचना सहन नहीं होती और उस पर जितने तेज हमले होंगे,उसके पक्ष में उतना ही धार्मिक ध्रूवीकरण होता जायेगा।

हम सिर्फ हिंदुत्व के  एजंडे की आलोचना करके धर्मांधों के धार्मिक ध्रूवीकरण करने में संघ परिवार की मदद करते रहे हैं और जाति,धर्म ,अस्मिता,व्यक्तिगत करिश्मे से हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला करने का दिवास्वप्न देखते रहे हैं।

सच का समाना करें तो हमने वंचितों,बहुजनों और बहुसंख्यक सर्वहारा तबकों,कामगारों और किसानों,युवाओं,छात्रों और स्त्रियों के वर्गीय़ ध्रूवीकरण की कोई कोशिश नहीं की है।

सत्ता जब निरंकुश होती है तो उसके खिलाफ आंदोलन और प्रतिरोध में बहुत ज्यादा रचनात्मकाता की जरुरत होती है।

यूरोप में सामंतोंं और धर्म प्रतिष्ठानों के खिलाफ नवजागरण से बदलाव की शुरुआत हुई तो किसानों,युवाओं,छात्रों के आंदोलनों से यूरोप अंधरकार बर्बर समय को जीत सका।

हमारे देश में भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सिर्फ राजनीतिक आंदोलन कभी नहीं रहा।साहित्य, कला, सिनेमा, संगीत, चित्रकला,पत्रकारिता के मार्फत जबर्दस्त सांस्कृतिक आंदोलन ने भारतीय जनता को एकताबद्ध किया तो दूसरी और सारे के सारे आंदोलनों और प्रतिरोधों के केंद्र में थे जनपद।

अंग्रेजी हुकूमत को सांप्रदायिक,धार्मिक,सामंती ताकतों का खुल्ला समर्थन था।तब भी धर्म की राजनीति हो रही थी।हिंदुत्व और इस्लाम की राजनीति हो रही थी।लेकिन बहुआयामी एकताबद्ध जनप्रतिरोध की वजह से,उसकी रचनात्मकता की वजह से उऩ्हें भारत विभाजन से पहले कोई मौका नहीं मिला।

हम इतिहास से कोई सबक लेने के तैयार नहीं हैं क्योंकि हम मिथकीय इतिहास के मिथकीयभूगोल के वाशिंदे हैं।आधुनिक ज्ञान विज्ञान और तकनीक को भी हमने मिथकीय बना दिया है।

 आजादी के बाद से सामाजिक आंदोलन सत्ता की राजनीति में तब्दील है तो सांस्कृतिक आंदोलन राजधानियों में सीमाबद्ध है।

गांव और जनपद,किसान और मजदूर,बहुसंख्यक बहुजन बाजार और सत्ता की राजनीति के समीकरण से बाहर हैं और हमने भी उन्हें हाशिये पर रखकर ही सत्ता की राजनीति में अपना  अपना हिस्सा मौके के मुताबिक हासिल करके अपना अपना जाति,धर्म,वर्ग का हित साधा है।जिससे जीवन के हर क्षेत्र में मनुष्यविरोधी,प्रकृतिविरोधी बर्बर माफिया तत्वों का एकाधिकार कायम हो गया है।

व्यक्तिगत करिश्मे और सत्तालोलुप क्षत्रपों के दम पर हम संस्थागत फासिज्म का प्रतिरोध करना चाहते हैं और किसी भी तरह के सामाजिक,सांस्कृतिक आंदोलन से हमारा कोई सरोकार नहीं है और न हमारी जड़ेें मेहनतकश तबकों में कही हैं और न गांवों और जनपदों में।

आजादी से पहले मीडिया या तकनीक का इतना विकास नहीं हुआ था।संचार क्रांति नहीं हुई थी।फिरभी कलामाध्यमों,पत्रकारिता के मार्फत पूरा देश एक सूत्र में बंधा हुआ था।

उस वक्त जनता के बीच जाकर राजनीति करने की जो संस्कृति थी,वह अब सोशल मीडिया की संस्कृति में तब्दील है।

सोशल मीडिया पर तलवारे भांजकर हम समझते हैं कि संस्थागत फासिज्म को हरा देंगे,जिसने आम जनता का धर्मांध ध्रूवीकरण कर दिया है और धर्म को ही संस्कृति में तब्दील कर दिया है।

गांव गांव में और यहां तक कि आदिवासी इलाकों में दलित बस्तियों में, मजदूरों और किसानों में. छात्रों, युवाओं  और स्त्रियों में धर्मस्थल धर्म आधारित उनकी मोर्चाबंदी है।

हमारा मोर्चा जमीन पर कहीं नहीं है।न हमें इसकी फिक्र है।